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User:Chandel rajput/sandbox

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परिचय -


आज से लगभग 337 वर्ष पूर्व 1683 में आज ही के दिन बुन्देलखण्ड की धरती पर यूपी , मध्यप्रदेश के छत्तरपुर के समीप द्वारिकाधीश की बुआ के सुपुत्र महाराजा शिशुपाल की 152वे पीढ़ी में चंद्रवंशी घोषी ठाकुर(चंदेल राजपूत) क्षत्रियों के चंदेल राजपरिवार के घुवारा दुर्ग में एक ससिंह शूरमा जना जिनका नाम हुआ कीरत सिंह और जिसने इतिहास में बुन्देलखण्डियो का नाम अमर किया। राजा उपरिचर वसु के 5 पुत्र थे बृहद्रथ प्रत्याग्रह, कुसंबु, मावेल्ला, और यदुनाभ मत्स्य (दत्तक), सत्यवती महाराजा दमघोष का जन्म पुरुवंशीय राजा उपरिचर वसु के पुत्र प्रात्यग्रह के वंश मे हुआ था

दमघोष के नाम पर इनके ही वंशज घोषी ठाकुर/घोसी राजपूत/चंदेल राजपूत कहलाये जो आज भी सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा बुन्देख्न्ड के छेत्रो में ही पाए जाते हैं। महाराजा दमघोष का विवाह भगवान श्री कृष्ण की छोटी बुआ रानी श्रुतश्रवा से हुआ। दमघोष और रानी श्रुतश्र्वा के पाँच प्रतापी पुत्र हुए शिशुपाल, दशग्रीव, रैभ्य, उपदिश और बलिदेव। इनमे महाराजा शिशुपाल सबसे प्रमुख थे ।

वेदो और पुरानो के अनुशार चंदेल वंश की उत्पति महाराजा शिशुपाल से ही मानी जाती हैं



पुरोहितो और इतिहास के अनुसार चंदेल राजपूत का खानदानी सिलसिला शुरू हुआ प्रतापी महाराजा उद्दैत सिंह से जो इन्ही चेदि नरेश महाराजा शिशुपाल की पीढ़ी के 151वे थे।


महाराजा उद्दैत सिंह का शासन बुन्देलखण्ड से ही सटे पूर्वी राजपुताना के धसाड़ के इलाको पर था । कहा जाता है कि एक मर्तबा महाराजा उद्दैत सिंह 16वि सदी के अंत में लाव लश्कर के साथ शिकार खेलने निकले। शिकार खेलते खेलते उद्दैत सिंह बुन्देलखण्ड के घुवारा नामक स्थान पर पहुँचे। महाराजा के सैनिको के शिकारी कुत्तो की नजर वहाँ मौजूद एक सुंदर खरगोश पर पड़ गयी । भूख से व्याकुल सैनिको के खूंखार शिकारी कुत्ते उस खरगोश को खाने के लिए उसे तडिया लिया और पीछा करते करते घने जंगलो के बीच एक पहाड़ी के पास रुक गये। महाराजा उद्दैत सिंह आश्चर्य में थे क्यूंकि उस पहाड़ी के समीप जो घटित हुआ उसे देख हर कोई अचरज में पड़ गया। दरअसल घुवारा की उस पहाड़ी इलाके में इतना तेज था कि एक मामूली से खरगोश ने राजा के खूंखार शिकारी कुत्तो को भयभीत कर पीछे होने पर मजबूर कर दिया। राजा उद्दैत सिंह समझ गये कि अवश्य ही इस स्थान पर अलौकिक शक्ति है। महाराजा उद्दैत सिंह ने उसी पहाड़ी पर अपने राज्य की राजधानी और निवास हेतु भव्य अभय किले का निर्माण करवाया और दुर्ग में ही अपनी अराध्य कुलदेवी देवता के मन्दिर का निर्माण करवा नगर का नामकरण "घुवारा" किया। ये भव्य किला आज भी नगर घुवारा में मौजूद है।


नगर घुवारा का नामकरण महाराजा उद्दैत सिंह ने एक पेड़ की सशक्त डाली पर किया ।

कुलदेवी हैं के आशीर्वाद से महाराजा उद्दैत सिंह की रानी ने घुवारा के भविष्य का भावी राजा जना ।

राजघराने के ब्राह्मण कुलपुरोहित ने भविष्यवाणी की कि - " हे राजन ये बालक एक महान प्रजावत्सल शासक सिद्द होगा जो घुवारा राजपरिवार के साथ साथ समस्त बुन्देलखण्ड का नाम अमर करेगा, कीर्ति को बढ़ाएगा अतः इसका नामकरण कीरत सिंह उर्फ़ कीर्ति सिंह रखिये।" बाल्यकाल से ही कुँवर कीरत सिंह काफ़ी वीर थे। पिता महाराज के स्वर्गवास के पश्चात कम उम्र में ही कुँवर कीरत सिंह का राजपरम्परा के साथ घुवारा के सिंघासन पर राज्यभिषेक किया गया इनका मुख सूर्यनारायण की भांति दमकता था, विशाल भीमकाय शरीर, रौबदार मूछें इनके शानदार व्व्यक्तित्व में चार चाँद लगाते थे।


अन्य जानकारी के अनुसार मात्र 20 वर्ष की अल्पायु में ही महाराजा कीरत सिंह ने अपने राज्य की सीमा का विस्तार सूर्यवंशी बुंदेलो ओरछा राज्य की सीमा तक कर लिया था। अपने कुशल नेतृत्व, शौर्य और तेज से महाराजा कीरत सिंह ने अपने राज्य की कीर्ति चौगुना करदी । एक दयावान, न्यायप्रिय दिलेर शासक कीरत सिंह को उनकी इन महान उपलब्धियों के कारण उनकी प्रजा और राजपुरोहित ने उन्हें " जू देव" की पदवी सम्बोधन किया । "जूदेव" का शाब्दिक अर्थ होता है " धरती पर राज करने वाले , दयावान देवता तुल्य राजा की जय" अर्थात देवता तुल्य राजा की जय , "जय देव" से बना जूदेव शब्द वैसे ये पदवी इनके अलावा भी बुन्देलखण्ड के महत्वपूर्ण कीर्तिवान महाराजाओ को भी रही है।


पूरे बुन्देलखण्ड में सूर्यवंशी बुंदेला नरेशो के अलावा अगर किसी को महाराजा की पदवी से सम्बोधित किया गया तो वो घुवारा रियासत के चन्द्रवंशज चंदेल राजपूत ही थे।


वीरवर महाराजा कीरत सिंह जूदेव , महान सूर्यवंशी बुंदेला राजा छत्रसाल के समकालीन थे तथा स्वयं बुन्देलखण्ड केसरी महाराजा छत्रसाल जी भी इनका बहुत आदर और सत्कार करते थे। वैसे कई पोस्ट में हमने आपको बतलाया भी है सूर्यवंशज बुंदेलो और चंदेल राजपूत क्षत्रियो के मधुर रिश्ते के बारे में और यह भी बतलाया है कि कैसे वीर चंदेल राजपूत को बुंदेला शासक आदरपूर्वक दाउजी अर्थात "बड़े भईया" कहकर सम्बोधित करते थे।


प्रजावत्सल महाराजा कीरत सिंह जू देव एक कुशल योद्धा और प्रजापालक होने के साथ-ही-साथ ईश्वर भक्ति करने वाले बहुत धर्मात्मा व्यक्ति थे। कहा जाता है कि उनके शासन में राज्य के दीन दुखियो, ब्राह्मणों, साधू संतो, गौ, मन्दिरों की रक्षा के लिए विषिस्ट नीयम थे। उनके शासन के समय जंगलो में निवास करने वाली एक भील गोंड जनजाति हुआ करती जो इतने क्रूर थे की वे लोग खेती का काम बैलो की जगह गौ से करवाते थे। जब गोंडो की इस नीच हरकत की खबर महाराजा कीरत सिंह को लगी तो उन्होंने तुरंत इस घ्रणित कार्य को बंद करवा गोंडो को दंडित करा और भविष्य में ऐसा घ्रणित कार्य न करने की कड़ी चेतावनी दी।



लोक कल्याण के कार्यों के लिए उन्होंने बहुत प्रयत्न किए थे।


आप में से बहुत से लोगो ने मध्यप्रदेश के मशहूर विश्वविख्यात मन्दिर " 1008 श्री श्री जगदीश स्वामी" मन्दिर का नाम अवश्य सुन रखा होगा। महाराजा कीरत सिंह जूदेव ने ही इस विश्वविख्यात मंदिर का निर्माण अपनी राजधानी स्थित घुवारा दुर्ग के परकोटे के अंदर करवाया था जिसमे उन्होंने उड़ीसा के जगन्नाथपुरी से साक्षात भगवान जगदीश स्वामी की प्रतिमा लाकर स्थापित करवाई थी।


इस मन्दिर के निर्माण की घटना यह है कि भगवान जगतनारायण के अवतार श्री कृष्ण के इतने महान भक्त थे कीरत सिंह जी कि एक मर्तबा स्वय भगवन ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दे उन्हें उड़ीसा के प्रसिद्ध जगतनाथ पुरी स्थित उनकी चमत्कारी मूर्ती को बलदाऊ और माता सुभद्रा की मूर्तियों के संग ससम्मान आदर सहित लाकर अपनी राजधानी घुवारा में लाकर स्थापित करने का आदेश दे।


भगवन के आदेश अनुसार महाराजा कीरत सिंह ने ज्गद्नाथ पुरी जा ससम्मान त्रिलोकी स्वामी भगवान श्री कृष्ण सहित उनके बड़े भाई बलराम जी और बहन सुभद्रा जी, तीनो की चमत्कारी मूर्तियों को राजपाल की में बिठा पूरे राजशाही लाव लश्कर के साथ पदयात्रा कर नगर घुवारा लौटे और महायज्ञ करा मूर्तियों को अपने भव्य दुर्ग के परकोटे में एक ऊंचे स्थान पर स्थापित कर '1008 श्री श्री जगदीश स्वामी मंदिर"की आधारशिला रखी। आप इस मन्दिर के महत्व का इसी बात से अंदाज़ा लगा सकते हैं की जगद्नाथ पुरी के पश्चात पूरे भारत में घुवारा के ही जगदीश मन्दिर को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण स्थान हासिल है। इतना ही नही महाराजा कीरत सिंह जी ने शासन के दौरान नगर घुवारा के चारो तरफ सांत तालाबो , अपने शौर्यवान पूर्वजो की याद में शाही छत्रियो और कई मन्दिरों का निर्माण करवाया।


1727 ई. में जब नीच नवब बंगश खान ने बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया तो बुन्देलखण्ड केशरी महाराजा छत्रसाल बुंदेला ने नवाब का प्रतिरोध करते हुए उससे युद्ध करने का निर्णय लिया। वीर महाराजा छत्रसाल बुंदेला ने बुन्देखंड की समस्त छोटी बड़ी हिन्दू रियासतों के जागीरदारो और राजाओ को एकत्रित किया मुसलमान नवाब बंगश खान के नापाक मंसूबों पर पानी फेरने के लिए


लेकिन इन छोटी मोटी रियासतों की सेना इतनी सामर्थ शाली नही कि नवाब की मुस्लिम सेना को रोक सके। अतः बुन्देलखण्ड की आन बाण शान की रक्षा का विषय ले महाराजा छत्रसाल स्वय चलकर घुवारा नरेश महाराजा कीरत सिंह के पास आये सैन्य सहायता के लिए। महाराजा छत्रसाल ने महाराजा कीरत सिंह से कहा " हे घुवारा नरेश, हे दाऊ कीरत सिंह में आपको अपना भ्राता मानता हूँ। आज में एक भाई के रिश्ते से आपसे पास आया हूँ।" महाराजा कीरत सिंह ने सविनय उत्तर देते हुए कहा " हे बुंदेला नरेश हम भी आपको अपना भ्राता मानतर हैं अतः बतलाये की हमारे भ्राता आज चिंतित क्यों हैं"। महाराजा छत्रसाल ने कहा - " मुद्दा ही काफ़ी गम्भीर है दाऊ। आज वीर भूमि बुन्देल खंड की आन बाण शान खतरे में है। नापाक मुस्लिम बंगश खान ने बुन्देखंड को तबाह करने के नापाक मंसूबे से चढाई कर रहा है। उसकी विशाल सेना को नेस्तनाबूद करने के लिए एक विशाल सेना की ज़रूरत है और पूरे बुन्देखंड में दो ही ऐसी रियासते हैं जिनके पास अपार सैन्य शक्ति है। पहली हम सुर्यवंशज रघुवंशी क्षत्रिय बुंदेलो की रियासत और दूसरी घुवारा राज्य के आप चंद्रवंशज चंदेल राजपूत क्षत्रियो का घराना। आज क्षत्रिय एकता और बुंदेलखंड की आन बाण शान के लिए आपका ये भाई आपसे सैन्य सहयता की मांग लेकर आया है" महाराजा कीरत सिंह ने उत्तर देते हुए कहा "हे भ्राता हे बुन्देलखण्ड केसरी आप निश्चिंत रहें । संकट की इस घड़ी में क्षत्रिय आन बाण के लिए में स्वयं सेना लिए रणभूम में उतरूँगा "



क्षत्रिय मर्यादा और बुन्देलखण्ड की आन, बान और शान बचाने के लिए 45 वर्ष की आयु में महाराजा कीरत सिंह जू देव वचन अनुसार इस युद्ध में महाराजा छत्रसाल की ओर से शामिल हुए और नबाव के साथ भीषण युद्ध किया। केसरिय बाना पहन " हर हर महादेव " बोल जब घुवारा की चंदेल राजपूत सेना रण में उतरी तो हिंदू भाईयो के खेमे में जोश और ख़ुशी की लहर जाग गयी वहीं नापाक मुस्लिम सेना में भय का मंजर जाग गया । महाराजा कीरत सिंह और उनकी सेना ने ऐसी तलवारे चलाई की देख मुसलमानों के पैर उखड़ गये।

चंदेल राजपूत ने दुश्मन सैनिको के मुंड अपने तलवार से काट रणचंडी को अर्पित करने लगे।

पराजित होता देख मलिछ मुसलमान सेना ने छल का प्रयोग करते हुए महाराजा कीरत सिंह जी को उकसाया। महाराजा कीरत सिंह जी ने क्रोध में दुश्मन सेना पर कहरबरपाना शुरू कर दिया और दुश्मन सेना की एक टुकड़ी को अकेले ही काफी दूर तड़ीया दिया। छल में माहिर मुस्लिन सेना ने उन्हें अकेला देख घेर लिया और बुन्देलखण्ड के स्वाभिमान की रक्षा में युद्ध में लड़ते हुए 19 अप्रैल, 1728 ई. को महाराजा कीरत सिंह जू देव ने वीरगति प्राप्त की। उनकी वीरगति की खबर सुन हिन्दुओं की सेना में हताशा आगई। हालांकि अंत तक हिन्दुओ की सेना ने नवाब की सेना से लोहा लिया।


युद्ध के पश्चात महाराजा कीरत सिंह का पार्थिव शरीर उनकी राजधानी घुवारा लाया गया और पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार हुआ।


उनकी वीरगति के पश्चात उनके छोटे भ्राता राजा ठाकुर श्री विश्राम सिंह जूदेव राजगद्दी पर नशीन हुए और स्वर्गीय महराजा कीरत सिंह के सम्मान में उनके समाधि स्थल भव्य शाही छत्री का निर्माण करवाया और एक भव्य तालाब का निर्माण कराया जिसका नाम "कीरत सिंह सागर" है।


बछरावनी, बूदौर,मदनीवार, चंदौली यह सभी घुवारा के आसपास के प्रसिद्ध ठिकाना हैं जहाँ पर इनके वंशज चंदेल राजपूत(घोसी राजपूत) आज भी आबाद हैं।


महाराजा कीरत सिंह जूदेव की पीढ़ी में जन्मे आगे के वंशजो को सवाई और रणदुल्हा की भी पदवी रही और इनकी पीढ़ी में सवाई श्री ठाकुर रामसिंह जूदेव, सवाई रणदूल्हा ठाकुर मर्दन सिंह जूदेव आदि जैसी नामी गिरामी शख्सियत हुई। हालांकि वर्तमान समय में इस राजसी वंश की धरोहर - महल, किले आदि जीर्णोद्वार के आभाव में बुरी स्थिति में है।

आपके साथ साझा की गई तस्वीरों में पहली दुर्लभ तस्वीर है स्वर्गीय महाराजा कीरत सिंह जूदेव की पैंटिंग की, तथा अन्य तस्वीरे हैं घुवारा के भव्य दुर्ग , प्रसिद्ध 1008 श्री जगदीश स्वमी मन्दिर तथा उसमे मौजूद देवताओ की मूर्तियों की तस्वीरे।

नोट:- चंदवंशीय चंदेल क्षत्रियो को अलग नामों से जाना जाता है जैसे घोसी ठाकुर, घोसी, राजपूत, चंदेल, चँदेला, राजपूत क्लूरिया राजपूत, और कही कही इनको शशिबिन्दु भी कहा जाता है आपका छोटा भाई :-राहुल राजा चँदेला